रविवार, 15 मार्च 2009

धुम्रपान दंडिका और कवि

धुम्रपान दंडिका के
अधजले ठोंटके
बिस्तर के नीचे से
या एस्ट्रे की राख से
ढूंड-ढूंड कर
कब तक सुल्गाओगे ,
स्वयम के हौंठ
अंगुलियाँ
अपना बिस्तर
यहाँ तक कि
अपना ह्रदय भी
धीरे -धीरे जलाते जाओगे ,
और मुझे विश्वास है
कि जिस दिन
अधजले ठोंटके भी ना मिलेंगे
तो पक्के कवि बन जाओगे ,
और तब
तिहारी कविताओं में
विरह होगा
संयोग होगा
सौन्दर्य होगा
वात्सल्य होगा
आसक्ति होगी
हास्य होगा
वैमनस्य होगा
प्रेम होगा
विरोध होगा
आदि होगा अंत होगा
पर अधजले
धुम्रपान दंडिका के
टुकडों का
कहीं भी
नामोनिशान ना होगा ,

कविवर नागार्जुन के निधन के बाद


मत खोजो
तुम मुझको
मैं अब भी
छिपा हुआ हूँ
शब्दों में ,
पुस्तकें
खोलकर देखो मेरी ,
पाऊँगा
उनके अंत;स्थल में ,
मरा नहीं
मैं लीनं हुआ हूँ
आत्मा के
सुंदर आँचल में ,
तन दग्ध हुआ
आवश्यक था
शब्द नहीं बचे थे
मेरी श्वान्सौं में