सोमवार, 29 दिसंबर 2008

एक राजा की कहानी (किसी ने ना जानी )पार्ट 4

प्रोपर्टी डीलर होने के कारण भांति -भांति के लोगों का आना जाना लगा रहता ,घर में ही महफ़िल जमने लगीं ,अब उसको लोक लाज की कोई चिंता नहीं रही ऐसा प्रतीत होता था की मानो पागल हो गया हो रात दिन बकवास गाली ग्लोंच करना उसके लिए मामूली बातें हो गयीं ,एक दिन युवराज ने कहा भाई अब तो हद हो चुकी अब तो हमारा पीछा छोड़ ,ऐसे केसे पीछा छोड़ दूँ आख़िर तुम हो तो मेरे भाई ही ,युवराज ने पूछा फ़िर कैसे छोडोगे ,उसने कहा बता देंगे ,चिंता क्यों कर रहे हो ,अब बताओ मै मकान केसे बना सकता हूँ मेरे पास तो इतने पैसे हैं नहीं की मैं बना सकूँ और जब तक मकान नहीं बनेगा तो खाली कैसे करूँ ,वैसे भी तुम इतने बड़े मकान का क्या करोगे इसमे से आधा मुझे ही फ्री में दे दो वेसे भी आपका माल तो पराये ही खाएँगे ,युवराज ने कहा मेरे भाई कुछ तो शर्म कर भगवान् से डर ,अच्छा चलो एक करोड़ रुपया ही दे दो ,कहीं जाकर मकान खरीद लूंगा ,तुम्हारी भी जान छुट जायेगी ,फ़िर इस महल में आराम से रहना , युवराज ने कहा मेरे पास इतने पैसा नहीं है ,वो तो तुमको देना पडेगा ,इस बात को लेकर ज्यादा गरमा-गर्मी ही गई तो उसने युवराज का गिरहबान पकड़ लिया और पीटने हेतु हाथ भी उठाया ,अपनी भाभी और बच्चों को भी ख़ुद और उसके बच्चों ने भी गालियाँ दी आज तो हद ही हो गयी ,जिस माँ के कहने पर युवराज ने अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया आज वो माँ भी खड़ी -खड़ी मुस्कुरा रही थी

इस घटना के अगले दिन युवराज के मेनेजर को उसने बुला कर कहा की युवराज को बोल देना या तो आधा महल दे देवे वरना या तो अन्दर करा दूंगा या ऊपर ही पहुंचा दूंगा ,जब युवराज को इस बात का पता चला तो बहुत क्रोध आया की वो भाई मुझे अन्दर कराना या मरवाने की धमकी दे रहा है जिसको मैंने क्या ना किया या क्या -क्या न दिया ,जिस पर भी युवराज ने विश्वास किया उसी ने उसके साथ विश्वासघात किया ,यानी की अब उसने धमकियां भी देनी शुरू कर दीं ,युवराज ने रिश्तेदारों और पंचों को बुलवाया पर उसकी बदतमीजियों के कारण कोई भी बोलने को तैयार ना था आख़िर ऐसे आदमी से कोई अपनी बेइज्जती क्यों कराये फ़िर कुछ समय और निकल गया ,युवराज ने किसी तरह कहीं से एक करोड़ का इंतजाम किया और किसी को लेकर उसको कहा की चल एक करोड़ ले खाली कर दे तो झपाक से बोला अब तो मुझे दो करोड़ चाहिए ,
इसके बाद तो वो और ओछेपन पर उतर आया ,वो युवराज को भांति -भांति से परेशान करने लगा ,जैसे की कभी पुलिस में झूटी रिपोर्ट लिखवा देना की युवराज उसे परेशान कर रहा है ,कभी चोरी की रिपोर्ट लिखवा कर आना की मेरा भाई मुझे परेशान कर रहा है ,कभी युवराज ने उसकी गाड़ी में टक्कर मार दी ,कभी उसने घर को गोदाम बना रखा है ,उसके रिश्तेदारों को घर में नहीं आने देता ,कभी उसके कुत्ते की तंग तोड़ दी ,आदि आदि ,दो चार बार पुलिस महल पर आई पर जब पुलिस ने युवराज के बारे में पड़ोस में पूछा तो उन सबने एक सुर में कहा की युवराज निहायत ही शरीफ है ,तब कहीं पुलिस ने घर पर आना छोड़ा परन्तु उसको डाटा फ़िर भी नही कहने का तात्पर्य है की उसने युवराज का जीना मुश्किल कर दिया अब वो पुरी तरह निम्न कोटि की नेतागिरी पर उतर आया ,वैसे भी वो छुटभैया नेता तो है ही ,अब युवराज ने उसे महल खाली करने कोकहना ही बंद कर दिया ,इसी तरह और पाँच वर्ष बीत गये ,पर वो किसी भी तरह महल छोड़ना नहीं चाहता था अब तो वो खुम ठोककर कहता फिरता की आधा तो लेकर ही छोडेगा ,लोगों से कहता की वो यहाँ से जाने वाला नहीं है,चाहे कोई कितना भी जोर क्योँ ना लगाले
इसी दरम्यान युवराज ने इस महल को दिल्ली विकास प्राधिकरण से लीज होल्ड से फ्री होल्ड अपनी पत्नी के नाम करा लिया और बिजनेस हेतु बैंक से लिमिट बनवा ली ,इस बात का पता जब उसको चला तो वो पागल हो गया और लड़ने मरने के लिए तैयार हो गया और इधर उधर शिकायतें करने लगा

रविवार, 28 दिसंबर 2008

नव वर्ष (२००९)

बीते वर्ष को प्रणाम कर
नव वर्ष का अभिनन्दन करो
वैमनस्यता को त्याग कर
सौह्राद्य्ता का सृजन करो ,
कर्म पथ में लीन होकर
अकर्मण्यता को त्याग दो
अस्त्यापथ को त्याग कर
सत्यपथगामी बनो ,
जातिपान्ति को भूलकर
मनुष्यता का वरण करो
सुरुचि पूरण व्यवहार कर
कुरीतियों का दमन करो ,
आन्दोलनों को त्याग कर
नव निर्माण में संलग्न रहो
नित नए आविष्कार कर
स्वदेश को दैदीप्यमान करो ,
विभाजन का बहिष्कार कर
देश की अखण्डता को ज्योति दो
जो भी आँख उठाकर देखे
उसके नैनों का छेदन करो

नव वर्ष २००९

नव वर्ष की
नव बेला पर
नव अंकुर यौं
उपजित हों
हम सब भारतवासी
सुख संपदा व्
धन वैभव से
विभूषित हों ,
सूर्य चंद्रमा
दोनों आकर
अपना तेज व
शीतलता से
हम सब की
झोली भर दे
अपनी संस्क्रती की
रक्षा कर
पग -पग कर
हम बढ़ते रहें ,
तारों के प्रकाश से भी
हम सब भारतीय
जाज्वालित होते रहें
घनश्याम भी
छत पर आकर
समय -समय पर
बरसतें रहें,
इन्द्रधनुष भी
सतरंगे रंगों में
हम सबको
रंगों से रंगतें रहें ,
देवलोक से
देवता भी आकर
हम सब पर
पुष्प अर्पित करते रहें
देवलोक से
अप्सराएँ आकर
न्रत्य संगीत व्
सुर ताल से
हम सबको
आनंदित करती रहें ,
हम सब भारतवासी
इस नववर्ष में भी
सभी सुखों से
आन्दंदित हों

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

महानदी

हिम खंडों से उत्त्पन्न
हिमालय पुत्री
बड़े -बड़े पाषाणों को
धकियाती
छोटे -छोटे पत्थरों को
सुंदर स्वरुप प्रदान करती
दुर्गम पथों
घाटियों
चट्टानों
अरण्य वनों से
प्रेमालाप अलापती
पशु पक्षी और
निरीह जानवरों को
अपने स्वादिष्ट
मीठे शीतल
सुपाच्य जल का
सेवन कराती
धरा पर अवतरित हो
छोटी -छोटी नदियों
नालों झरनों को
अपने आँचल में
समेटती
निरंतर
दिन रैन
प्रगति के पथ पर
सर्प की भांति लहराती
मैदानी क्षेत्रों को
जल का अमृत पान कराती
हरियाली लुटाती
अपने वेग व
वक्रता से उत्पन्न
कल कल के शब्द से
जनसमूह के
ह्रदय को लुभाती
जीवन प्रदान करती
यथार्थता को
उजागर करती जाती
असंख्य संकटों को
उदर में समाती
अपने प्रियतम
समुन्द्र का
सामीप्य पाते ही
उसकी सशक्त भुजाओं में
आलिंगन बद्ध हो
मोक्ष प्राप्ति कर जाती

सूर्य

साँझ हो रही है
पर सूर्य का
अन्तिम समय
जैसे -जैसे समीप आ रहा है
उसका वही तेजोमय सवरूप
जी प्रात:काल
उसके पैदा होने के समय था
वापस आ रहा है
यह विचित्र संयोग है
की एक तपस्वी
तप में लीन
जैसा उत्पत्ति के
क्षणों में था
यथास्थिति
अन्तिम समय में भी
मंद -मंद मंथर गति से
विचरण करता
मुस्कुरा रहा है
ना उसे
आने की प्रसन्नता थी
और ना जाने का संताप
सम्पूर्ण दिन
अपने खजाने से
इस नश्वर संसार को
ओत प्रोत कर
स्वयम का सम्पूर्ण वैभव
यहीं पर अर्पण कर
परोपकार करता
खाली हाथ आया
और खाली हाथ जा रहा है
कोई नहीं जानता
उसकी भावनाए क्या थी
और उद्देश्य क्या था
हाँ इतना अवश्य है की
वो परोपकार में ही
स्वार्थ खोजता -खोजता
अपने गंतव्य को
मंथर गति से
मंद -मंद मुस्कुराता
चला जा रहा है

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

ईमानदारी जब बोलती है

ईमानदारी जब बोलती है
अपना कंठ खोलती है ,
आंधियां चलती है
तूफान उमड़ते हैं
बड़े -बड़े तरु धराशायी हो जाते हैं
ऊँचे -ऊँचे भवन नष्ट हो जाते हैं ,
नदियों का तेज बहाव
रुक जाता है
समुन्द्र में
ज्वार भाटे आते हैं ,
दिन में तारें
निकल आते हैं
सूर्य का तेज
निस्तेज हो जाता है ,
पशु पक्षी शांत हो जाते हैं
हजूम के हजूम
उमड़ आते हैं
सिंहासन हिल जाते हैं
तख्ते ताउस बदल जाते हैं ,
राजनितिक गतिविधियाँ
तेज हो जाती हैं
बम के गोले फूटते हैं
मिसालियें छोड़ी जाती हैं ,
देश भक्त शहीद
हो जाते हैं
देश के देश
बर्बाद हो जाते हैं
जब ईमानदारी बोलती है

बताओ मेरा नाम क्या है ?(ईमानदारी )

प्रत्येक मनुष्य
मेरा नाम सुनकर
कुछ चिड जाता है
उद्विग्न हो जाता है
या जल भुनकर
राख का ढेर
हो जाता है
क्षण भर मनन करने पर
शांत भी हो जाता है
बताओ मैं कौन हूँ
मेरा नाम क्या है
मेरा काम क्या है
शायद सब जानते हैं
पर पहिचानते नहीं
क्यों की कलयुग में
मेरा भजन करने वाला
भूखा या भिकारी ही नहीं
बल्कि दिवालिया बनकर
इस म्रत्यु लोक को छोड़
स्वर्ग सिधार जाता है
जो यह सब जानते हैं
मुझे पहिचानते नहीं
और जान बूझकर
गूंगे बहरे बन जाते हैं
क्यों की मैं
इस सम्रध समाज में
हूँ एक छत की बिमारी
इसीलिए मेरा
बहुचर्चित नाम है
केवल इमानदारी

रविवार, 21 दिसंबर 2008

भूखे व्यक्ति की मनोदशा

जब भूख लगी होती है
आत्मा सो जाती है
भावनाए मर जाती हैं
स्मृति नष्ट हो जाती है
ह्रदय व्याकुल होता है
अन्दर ही अन्दर रोता है
जड़ता की और अग्रसर होता है
प्रज्ञाशून्य में खो जाती है
धर्म नष्ट हो जाता है
जातीय भेद मिट जाता है
संस्कार लुप्त हो जाते हैं
आदर्शवादिता मुख छुपाती है
छोटे बड़े का भेद मिट जाता है
आदमी भी श्वान बन जाता है
कुत्ता छिनकर भागता है तो
बिन झोली भिक्षुक कहलाता है
पर जब आदमी छिनता है तो
आदमियों से ही मार खाता
उदराग्नि शांत करने के कारण
बहशी ,दरिंदा ,अमानुष कहलाता है
आलोचनाएँ की जाती हैं
आदर समाप्त हो जाता है
और कारण जानने पर भी
हर कोई दुतकारता है
गुलिबंद बाँध दिया जाता है
नामकरण कर दिया जाता है
क्षुधा शांत करने के बजाय
जेल भेज दिया जाता है





यथार्थ

अपने आप को कफ़न में लपेट
अपने शव को स्वयम उठाकर
अनगिनत बार शमशान में जलाकर
अन्तिम संस्कार कर चुका हूँ ,
ग्लानी होती है जब वो कहते हैं
की में अभी भी जिंदा हूँ
किसी नाटक का मंचन कर
रिहर्सल का प्रयत्न कर रहा हूँ ,
शायद वो मुझे जीवित बताते हैं
जिन्होंने जीवन भर सताया था
जब मुर्दा था मैं शमशान में
इन्होने ही कफ़न भी चुराया था

यथार्थ

क्या आपने किसी मुर्दे को
चलता फिरता देखा है
आप कहेंगे नहीं
तो देख लो आकर
मैं वो ही चलता फिरता मुर्दा हूँ
जो सबकी आंखों में
धूल झौंककर
इंसान बना फिरता हूँ ,
इस जीवित मुर्दे ने
हजारों जीवित मुर्दों को
व्यस्त सड़क पर
चिंतित अवस्था में
विचरण करते देखा है
उनकी आत्मा में झांका
यथार्थ को जानने हेतु
उनके शवों को उघेदा है
परन्तु क्या ?
ऊपर से चमेली की
आ रही थी खुशबु
सूंघकर देखा तो
आ रही थी बदबू
हे ऊपर वाले इन मुर्दों को
कफ़न ही दे दे
नहीं स्थान इस जहाँ में
तो शमशानों में शमन कर दे

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

परिस्थितियाँ

परिस्थितियां मानव को
किस प्रकार
दास बना देती हैं
सर्वांग होते हुए भी
विकलांग बना देती हैं
परिस्थितियां ,
अंगों में आ जाती है शिथिलता
वो निष्क्रिय हो जाते हैं
अपना भार उठाने तक में
वो असमर्थ हो जाते हैं
संपूर्ण तन को
कोदग्रस्त बना देती हैं
परिस्थितियां ,
जो कल तक
पर्वत की चोटी देखकर
लांघने का सामर्थ्य रखता था
आज उनकी
ऊंचाई मात्र देखकर
आंखों को नम कर देती हैं
परिथितियाँ ,
जिसने कभी
आंधी तूफानों से भी
हार ना मानी थी
आज शीत लहर के झोंके से
स्वांश उखेड़ देती है
परिस्थितियां ,
जो कल तक समाज को
उपदेश देता था
सत्य और इमानदारी के
शलोक सूना देता था
आज उसी मानव को
नीच कमीना बेईमान
हैवान तक बना देती हैं
परिस्थितियां ,
जिसने कभी किसी को
नतमस्तक ना किया था
अपने सिद्धांतों व आदर्शों का
ना कभी सौदा किया था
आज उसे घुटने टेकने को
मजबूर कर देती हैं
परिस्थितियां ,

ज़िन्दगी को रोको मत

ज़िन्दगी जैसे भी
चलती हे चलने दो
उसे रोको मत
तारों की मद्धिम रोशनी जैसी
या शशी की शीतलता जैसी
अथवा रवि की भांति
अपनी किरणों से
जीवन दान देती
या अग्नि की भांति
बदले की आग में
झुलसती है तो
झुलसने दो
उसे रोको मत ,
नदिओं के बहाव की भांति
झरनों की फुहार की भांति
बर्फ की तरह ठंडी होकर
या हवा की तरह
झोंके देकर
या ज्वालामुखी की भांति
संसार का सर्वनाश कर
जैसे भी चलती है
चलने दो
उसे रोको मत ,
यदि चिंतित है तो
चिंताग्रस्त होने दो
मुस्कराना चाहे तो
मुस्कुराने दो
यदि हंस नहीं सकती
तो ना हँसे
रोना चाहती है तो
जी भरकर रोने दो
पर उसे रोको मत ,
स्वार्थी बनकर चलती है
तो चलने दो
अपकारी बन कर
जीना चाहे तो जिए
रिश्वतखोरों की तरह
भ्रष्टाचारियों की तरह
तिजोरियां भरकर
अपमानित होना चाहती है
तो होने दो
पर उसे रोको मत ,
अपनी संस्कृति त्याग कर
नारी को अपमानित कर
देश को गिरवी रखकर
जैसे भी जीना चाहती है
जीने दो
उसे रोको मत ,
ऐसा करते -करते
वो एक दिन थक जायेगी
स्वयम से उदास हो जायेगी
जब गलती का भान होगा
तो बहुत पछताएगी
पागल होगी
आत्महत्या करेगी
स्वयम को कोसते -कोसते
एक दिन मर जायेगी
उसे रोको मत ,
उसका अंत वीभत्स होगा
असंख्य पीडाओं से
ग्रस्त होगा
संपूर्ण देश व समाज
उसके कार्यों से
त्रस्त होगा
उसकी आत्मा ही उसे
दीमक की भांति
चाट कर जायेगी
पर उसे रोको मत ,

एक राजा की कहानी किसी ने ना जानीं (पार्ट --२)

अचानक युवराज को एक दिन बीच वाले भाई का एक दोस्त मिला दुआ सलाम के बाद उसने कहा भाई साहब आप भी दस बीस लाख रुपया मेरे बैंक में फिक्स करा लो ,आपके छोटे भाई ने तो दो महीने पहले ही दस लाख रुपया मेरे बैंक में फिक्स कराया है वैसे उन्होंने ही मुझे कहा था की भाई साहब से पूछ लेना ,युवराज ने कहा ठीक है मैं आपको बता दूंगा ,युवराज ने घर पहुंचकर बीच वाले भाई को बुलाया और उससे कहा की आज उसका अमुक मित्र मिला था कह रहा था की तुमने उसके बैंक में दस लाख रुपया भी फिक्स कराया है और कुछ रुपया भी अभी फिक्स कराने को कहा है तो कब फिक्स करवा रहे है आप् और रुपया ,ज़रा हमे भी तो बताओ की इतना रुपया कहाँ से आ रहा हैं ,जब की मैं पाई-पाई के लिए दुखी हूँ और तुम पैसे फिक्स कराते घूम रहे हो ,तुम्हें तो कम से कम शर्म आणि चाहिए तुम्हारे लिए मैंने क्या नही किया ,तुम बजाय मेरे पैसे देने के मुझे और चुना लगाकर मेरा और मेरे बच्चौं का भविष्य ख़राब करने में लगे हो ,तुम तो भाई के नाम पर कलंक हो तुम्हें समाज की भी परवाह नहीं की लोग क्या कहेंगे यदि हम कहीं भी डिफाल्टर हो गए तो हमारी बनी बनयी इज्जत खाक में मिल जायेगी ।
वो कहता है की मुझे ये सब कहानियाँ सुनाने की जरुरत नहीं है की इज्जत ख़राब होगी या अच्छी होगी यदि ख़राब होगी तो तुम्हारी ही होगी मेरी तो ख़राब होने से रही क्यों की मैं तो पैसे का लें देन करता नहीं ,तुम करते रहे हो तो तुम ही जानो मुझे तो कभी तुमने क्यार मुख्त्यार बनाया ही नही इस लिए कोई मुझसे पैसे मांगकर तो देखे फ़िर उसको देख लूंगा ,रही मेरे लिए कुछ करने ना करने की जब बड़े भाई बने हो तो ये सब करना ही था ,ये भी कोई मुझ पर अहसान तो नहीं कर दिया मैं भी तो तुम्हारे साथ लगा ही रहता था फ़िर मैंने कोण सा कहा था की मेरे लिए कुछ करो , तुम करते रहे में भरता रहा भला आता किसको बुरा लगता है ,वैसे जो कुछ मेरा दोस्त कुछ कह रहा था वो सब झूट बोल रहा होगा क्यों की मेरी उसकी आजकल बन नही रहीं इसलिए लड़ाने की कोशिश कर रहा होगा ,वैसे भी मैंने अब आपके साथ नहीं रहना ,मुझे मेरा हिस्सा दो ताकि मैं भी अपने बच्चों का भविष्य संभालूं और मैं तुम्हारे साथ लगा रहा तो बर्बाद ही हो जाउंगा क्यों की सत्यावादी हरिश्चंद्र तो तुमने बन्ना है मेने नहीं , उसे इतना बोलता देख कर युवराज जान गया की पानी सर के उपर से उतरने लगा है अब तो भगवन ही बचा पाएंगे इस लिए अभी वो अलग थलग के मामले को टालना चाहता था इसी तरह लड़ते झगड़ते दो तीन वर्ष और बीत गए आख़िर एक दिन वाही हुआ जिसकी युवराज को आशंका थी
एक दिन सुबह -सुबह वो गुस्से में युवराज के पास पहुंचकर बोला की मुझे मेरा हिस्सा देकर अलग कर रहे हो या नहीं ,युवराज बोला तुम्हारा कैसा हिस्सा क्या कभी तुमने मुझे कमाकर दिया है जो आज हिस्से की मांग कर रहे हो और जो कुछ तुम्हारे नाम करा रखा है वो सब मेरे ही प्रयत्नों का फल है वो बोला है तो मेरे ही नाम ,जो मेरे नाम वो मेरा ,वैसे भी तुम मेरे बड़े भाई हो जो मांगूंगा वो तो देना ही पड़ेगा अब चाहे राजी से दो ,या गैर राजी ,युवराज ने कहा की पन्द्रह दिन बाद फैसला कर लेंगे हम तुम दोनों ही बैठकर ,बेकार में दुनिया को सुनाने का क्या फायदा ,नहीं भाई साहब मैं तो अपने चार दोस्तों को जरुर बुलाउंगा ,ठीक है बुला लेना
ठीक पन्द्रह दिन बाद वो अपने चार दोस्तों को लेकर ऑफिस में आ गया वेसे उसके चारो दोस्त युवराज को भली भांति जानते थे और ये भी जानते थे की किसने क्या किया ,उसको पता था की युवराज इन सबके सामने ऐसी बात नही करेगा जो उसके हित मैं हो जिसकी वजह से खानदान की इज्जत खतरे में हो ,युवराज उन चारों के सामने पूछा की पहले तुम ये बताओ की तुमने कौन सी चीज बनाकर अपने प्रयत्नों से खड़ी की या केवल कोर्चा करना ही सीखा तुम केवल मेरे पास एक नौकर की हेसियत से काम करते रहे हो ,केवल मेरी गलती ये है की मेने तुम्हें कभी भी नौकर ना समझकर अपना भाई ही समझा और उसका नाजायज फायदा तुम उठा रहे हो ,किसी भी चीज पर तुम्हारा कोई हक नहीं है फ़िर हिस्सा किस तरह मांगते हो ,यदि तुम मेरी इस बात से राजी हो तो एक कागज पर लिख कर दे दो ,वो बोला लाओ मैं लिख कर दे देता हूँ और उसने एक कागज़ लेकर लिखना शुरू कर दिया वो रोता जा रहा था और लिखता जा रहा था ,और उसने लिखकर दे दिया की फेक्ट्री ,दूकान ,मकान प्लाट या जो भी जायदाद है उस पर मेरा कोई हिस्सा नहीं है और ना ही मेरा हक है
युवराज भावनाओं में बह गए और उस लिखे कागज़ को फाड़कर फेंक दिया ,फ़िर उसको कहा की बोल तुझे क्या चाहिए ,वो बोला जो आपने देना है ख़ुद ही दे दो ,युवराज ने कहा तुम ख़ुद ही मांग लो ,वो बोला जो मेरे नाम है फेक्ट्री ,प्लाट दूकान और बियर का लाइसेंस और कुछ रुपया ,यानी की उसने युवराज की शराफत का पूरा फायदा उठाया युवराज ने कहा की और रुपयों के अलावा सब तुझे दिया ,क्यों की तुमने रुपयों के मामले में तो मुझे पहले ही कंगला कर रखा है ,पर उसका एक दोस्त बोला भाई साहब जहाँ आपने इतना दे दिया वहीं दो चार लाख में क्या फर्क पडेगा और युवराज ने तीन लाख रूपये भी दे दिए युवराज बोला अब मेरे पास मकान या एक प्लाट के अलावा कुछ नहीं बचा है यदि बचा है तो कुछ कर्जा ही बचा होगा ,अब रही मकान की बात तो ये बताओ की वो कब खाली करना है वो बोला की जितनी जल्दी होगा जेसे ही मेरा इंतजाम हो जायेगा कर दूंगा ज्यादा से ज्यादा एक वर्ष ,चलो ठीक है अब आप लोग कहेंगे की युवराज ने ऐसा क्यों किया ,क्यूँ की वो दुनिया को अपने घर का झगडा दिखाना नहीं चाहता था दुसरे वो किसी भी कीमत पर शान्ति खरीदना चाहता था ,उसे अपने बाजुओं पर भी भरोसा था ,सबसे बड़ी गलती युवराज ने जो की वो थी की उसे मकान से तभी निकाल देना चाहिए था जो उसने भावनाओं में बहकर नहीं किया ,युवराज की दूसरी गलती थी इस फेसले को किसी स्टांप पेपर पर लिखवाना चाहिए था और उन पंचों के भी दस्तखत भी कवाने चाहिए थे ताकि वो सब आगे काम में आते ,तीसरी गलती की एक झूठे और मक्कार व्यक्ति (भाई )पर विश्वास किया अब आगे देखिये उस भाई ने अपने देवता जैसे भाई के साथ कैसा -कैसा खेल खेला युवराज और उसके बच्चों की जिन्दगी कैसे बरबाद की और भगवान् ने उसके साथ क्या किया

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

कलयुगी शिकारी

निरीह जानवर का बच्चा
बड़ी बेदर्दी से
दोनों हाथों से पकड़कर
आकाश में उठाया और
एक हाथ से गर्दन पकड़कर
दूश्रे हाथ में खंजर लेकर
झटाक से सिर
धड से अलग कर दिया
और सीना फुलाकर कहा
हमने शिकार कर लिया
हम कलयुगी शिकारी हैं
झटके का खाते हैं
हलाली से हमारा क्या वास्ता
क्यों की हम हिंदू हैं ,
हलाली का तो मुस्लिम खाते हैं
कैसे बेरहम हैं वो
जो निरीह जानवर के बच्चों की
गर्दन पर छुरी धीरे -धीरे चलाकर
शिकार करने का नाटक रचाते हैं
आख़िर सोचने का क्या लाभ
झटका करो या हलाली
जानवर का बच्चा तो
जान से चला ही गया
दोनों ने ही शिकारी बनकर
बेचारे बच्चे के मॉस का
स्वाद भी एक सा लिया ।

संसार क्या है ?

पागलखाना है
या चिडियाघर
रैन बसेरा है
या अजायबघर
पुष्प समझते हैं
पुष्प वाटिका
शूल समझते हैं
कंटकों का घर
यहाँ प्रतिपल जीते हैं
या प्रतिपल रहे मर
शायद है प्रसूति ग्रह
अथवा शमशान घर

आत्म वध

उधर्व भाग का
अवलोकन कर
स्पंदन पा
चुम्बन कर
नयनाभिराम कर
सुष्ठुता को दरढ़ं कर
किंचित मात्र सा
तर्पण कर
स्वप्नों में खो गया
मध्य भाग का
मंथन कर
घर्षण कर
किंचित सा
अर्पण कर
आत्मविभोर हो
समर्पण कर
वैरागी बन गया
निम्न भाग को
नमन कर
अंगों का
आचमन कर
सिसकियों का
संचारण कर
स्वयम सर्वस्व का
स्खलन कर
फ़िर करता है प्रभंजन
संसय और
अनियमित जीवन

कुछ दोहे

मति जिनकी सुद्रढ़ रहे ,कहलाते यशस्वी वीर ,
बिना मति के सिद्ध भी ,बावरे होते मीर
सुख अमृत का पान कर ,दुखिया है संसार ,
जो दुखों को सुख कहे ,बस उसका बडा पार
कल -कल करते जगमुआ ,कूच किया संसार ,
जिसको आज ने जान लिया ,उसका भाया उद्धार
रोते हैं सब चैन को ,सगे संबंधी और नारी ,
आदमी को कौन रोत है ,चाहे मरे हजारों बार
तूने किसी को क्या दिया ,ना किया कभी उद्धार ,
अपना बेडा गर्क कर ,क्यूँ खोले नर्क द्वार

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

बेहाल जिन्दगी

बेहाल जिन्दगी
नीरस जिन्दगी को
सरस बना
रसों से श्रंगार कर
वीर रस से
वीरत्व दे
श्रृंगार रस से
संवार कर
सौन्दर्य रस से
दे सौम्यता
नवयौवना
कोमलांगी समझ
नयनाभिराम सा
चित्र बना
प्रेयसी की भांति
उद्धार कर
सुवासित होगा
तेरा उपवन
मत अब तू
संहार कर
निष्प्रयोजन भावों पर
विजय पा
रुद्र रख
संभालकर
भावावेश से
युद्ध कर
विपत्तियों को
डाटकर
सर्व कष्टों का
दान कर
सर्व सुखों का
पान कर
मुस्कराता रह सदैव
भविष्य का
विचार कर
वर्तमान सुधर जायेगा
इस जिन्दगी से
प्यार कर
प्यार कर

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

माँ ,मात्रभूमि और मात्राभाषा

प्रत्येक मानव
प्रेम करता है
माँ से
मात्रभूमि से
मात्रभाषा से
क्यों की ये तीनों
निस्वार्थ है
परोपकारी व्
उदारता
कूट-कूट कर भरी है
इनके आँचल में ,
सभी देव व
देवियों की आस्थाये
निवास करती हैं
उनके चरण कमलों में
माँ ममत्व देती है
वात्सल्य उन्देलती है
दुग्धपान करा
नवजीवन देती है
मानमर्यादा व
सुसंस्कृत करती है
संस्कार देती है
गुरु बनकर
विवेक देती है
अपना सर्वस्व न्यौछावर कर
मानव कोमानवीयता का
आशीर्वाद देती है
लौह पुरूष बनाकर
लोहे के चने
चाबने का
आह्वान करती है
मात्रभूमि
जो मानव को
अपनी रज से
पुश्टी व तुष्टी
प्रदान करती है ,
अपनी मृतिका की
भीनी -भीनी सुगंध से
सम्मोहित कर
बाँध लेती है ,
वो सुजलां है
सफला है
अपने अन्न व जल
एवं वायु से
भरण पोषण कर
जीवन में
संघर्षरत हो
मर्यादित जनों की भाँती
जीवनयापन का
व्याख्यान देती है
मात्र भाषा ,
जो शब्दों का जाल है
बिन पढ़े ही
पुस्तेकों के
मानव को
बोलने चालने व
विचार करने का
आभाष करा देती है
अध्ययन करने पर तो
मानव के अंदर
छिपी प्रतिभा को
प्रेरित कर
सम्पूर्ण ज्ञान का
भण्डार भर देती है

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

नारी की पुकार नोजवानों और उनके अभिभावकों से

मेरे देश के नोजवानों
मेरे प्रशन का उत्तर दो
आज भी तुम क्यों ?
मेरे अभिभावकों से
दहेज़ मांगते हो ,
क्या मैं लूली हूँ
या लंगडी हूँ
या बहरी और गूंगी हूँ
या मुझे गले बाँध
ढोल पीटने का
कोई टैक्स मांगते हो
मेरे सौन्दर्य का रसपान हेतु
नारीत्व का अपमान हेतु
वात्सल्य का आह्वान हेतु
मेरी रक्षा का दंभ भरने वालो
अपनी जीविका चलाने हेतु
कन्यादान के नाम पर
अर्थदान की मांग करने वालो
भिक्षुक की भांति
झोली फेलाकर
दंडवत प्रणाम कर
पुरुषत्व का झूठा गर्व कर
किन्नरों की भांति
तालियाँ बजा-बजा कर
दहेज़ के लालचियो
तुम दहेज़ क्यों मांगते हो
आज २१वी शदी
चल रही है
नारी प्रत्येक क्षेत्र में
पुरुषों से आगे चल रही है
पर वो तुम्हारी तरह
असत्य गर्व नहीं करती
इसी लिए पुरूष प्रधान
समाज में
कंधे से कंधा मिलाकर
तुम्हारे साथ चल रही है
पर ये उसकी नियति है
जो प्रणय सूत्र में
बंधने हेतु
दहेज़ रुपी
मूल्य देकर भी
नोकरानी बनने हेतु
याचना कर रही है
अभी समय है
निद्रा को त्यागो
और कन्याओं के
अभिभावकों से
दानव रुपी दहेज़ मत मांगो

पुजारिन

तुम्हारा लावण्या पूर्ण सौन्दर्य
चंद्रमुखी ओजस्व
म्रग नैनी नैन
शीतल स्वभाव
विवेकपूर्ण बुद्धि
देवत्व प्रवर्ति
पियुशीय स्फुटित स्वर
नीर सम निर्मलता
पंकज सी कोमलता
सौष्ठव शरीर व्
श्वेत आवरण में छिपी
तुम्हारा मूर्त रूप देखकर
ना जाने किस भ्रान्ति से
मेरा मस्तक
झंनाने लगता है
भोंहें फड़कने लगती हैं
मुख के भाव लुप्त हो जाते है
ह्रदय व तन
कम्पायमान हो जाता है
टांगें लडखडानेलगती है
स्पंदन सा
समस्त तन में समा जाता है

नारी ही सर्वस्व है,

वेदों की तुम रिर्चा हो
रामायण की हो पंक्ति
महाभारत की द्रोपदी हो
महाउप्निषद की हो सूक्ति ,
देवों की तृप्ति हो
मानव की हो श्रुति
चाणक्य की युक्ति हो
संसार की हो मुक्ति ,
वेदव्यास की एकाग्रता हो
भीष्म पितामह की स्कक्ति
अर्जुन की हो तुम हो साधना
मानवमात्र की हो भक्ति ,
महामाया महायोगिनी हो
मृतिका से बनी आक्रति
हरिश्चंद्र की तारा हो
प्रणय सूत्र की सावित्री ।

नारी समर्पण

क्यों प्रथाओं से भी
असीम प्रेम करती हो
क्रोध को भी
प्रेम से सींचकर
उसमे पराग भरती हो ,
कुप्रथाओं को भी
ह्रदय में सँजोकर
जीवन संचार करती हो
ओढ़ लबादा बिना मान के
क्यों श्रृंगार करती हो ,
संस्कारों की गुंथकर माला
सबका उद्धार करती हो
ओरों के ह्रदय का
क्षोभ मिटाकर
उसमे मिठास भरती हो ,
आदर्शों को अग्नि देकर
नित प्रहार सहती हो
एक कुल से
दूसरे कुल में जाकर
कुल्वार्धिनी बनती हो ।

कवी का कथन नारी हेतु

हे कोमलांगी
सौन्दर्य की देवी
त्याग की मूर्ती
सरंचना की स्र्जन्हारी
ममता की भ्रामरी
शांती की पुजारिन
अन्नपूर्णा शक्तिदात्री
तू रो मत
रुद्र ना बहा
चिंता ना कर
चिता ना सुलगा
आत्महत्या ना कर
शोषण करने वालों से लड़
शक्ती का प्रदर्शन कर
मंत्र पूजित जल से
सभी को अभिमंत्रित कर
अपना रौद्र रूप दर्शा
शोषण करने वालों को
स्वाहा -स्वाहा कर
महाकाली का आह्वान कर
सभी देवी देवताओं
यक्ष गन्धर्वों का
आशीर्वाद प्राप्त कर
तू गंगा यमुना है
कृष्णा कावेरी है
महादेवी गोदावरी है
पावन सरिता बनी
सभी की तृष्णा शांत कर
प्यास बुझाती
मेल को धोती
चितवनों को निर्मल करती
माधवी की भांति
त्याग की ज्योति को
अक्षुण्य रखती
बस बहती जा
बस बहती जा

मेरा प्रारब्ध (स्त्री )

देवी मानकर पूजी जाती हूँ
फ़िर भी सम्मान ना पाती हूँ
बिन दहेज़ कोई नहीं स्वीकारता
दहेज़ बिना बलि चडाई जाती हूँ
यही तो मेरी नियति है
इससे भी दयनीय स्तिथी है
परिवार में ऐसे रहती हूँ
जैसे जीभ दांतों के बीच में रहती है
अन्नपूर्णा कहलाई जाती हूँ
सभी को जिमा बाद मे खाती हूँ
फ़िर भी खाने भर हेतु
प्रतिपल सताई जाती हूँ
कोई प्रशन नहीं करता उनसे
क्योँ ?रोज रुलाई जाती हूँ
ऐसे क्या पाप किए मैंने
जो प्रतिक्षण सुलगाई जाती हूँ

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

बिन नारी सब सून (यथार्थ )

मेरे बिन घर भूतों का डेरा है
दीपक नहीं जलता रहता सदैव अँधेरा है
जहाँ मेरा आवास नहीं
लक्ष्मी का वहां वास नहीं
देवता भी नमन नहीं करते
जिस भू पर ना मेरे पैर पड़े
जहाँ पर ना मेरा पैहरा है
सदैव युद्ध होता रहता है
क्रांति भी वहाँ नहीं आती
शान्ति भी छुपकर भाग जाती
चूल्हे भी ठंडे रहते हैं
अग्नि कभी ना जल पाती
मटके भी फूटे रहते हैं
प्यास कभी ना बुझ पाती
उन्नत्ती परिवार की रुक जाती
जिस ग्रह में में ना जा पाती
उत्त्पत्ती संसार की रुक जाती
क्योँ की ना सरंचना हो पाती
कुल के कुल नष्ट हो जाते
जहाँ पर में ना पहुँच पाती
संयम कूट -कूट कर भरा मुझमे
में इसी लिए सब कुछ सहती जाती
सभी नातों को भली भांती समझ
खूब निभाना मुझको आता है
माँ बाप और भाई बंधू
पति सास ससुर से क्या नाता है
इन सबके हेतु मेरे जीवन में
त्याग ही मेरा भ्राता है

वो भी तो नारी है

उसकी भ्रकुटी -याँ
चलायमान होने भर से
ब्रह्माण्ड हिल जाता है
पहाड़ टूटने लगते हैं
ज्वालामुखी फूटते हैं
तूफ़ान आ जाते हैं
पेड़ उखड़ने लगते हैं
नदियौं में बाड़ आ जाती है
समुन्द्र में ज्वार भाटा उठता है
मेघ गर्जना करते है
बिजली कड़कने लगती है
आकाश फट जाता है
धरती फट जाती है
दिन में तारे चमकने लगते है
सूर्य चन्द्र निस्तेज हो जाते है
राक्षस विचलित हो जाते है
इन्द्रासन दोल जाता है
पशु पक्षी भयभीत होते हैं
प्रलय हो जाती है
वो कराली है
हाँ वो भी तो नारी है
उसकी मद्धिम मुस्कान से
प्रक्रति चंचल हो जाती है
भांति -भांति के पुष्प खिलते है
आकाश निर्मल हो जाता है
दुग्ध नदियाँ प्रवाहित होती है
समुन्द्र शांत हो जाता है
लावा राख हो जाता है
पशु न्रत्य करते हैं
पक्षी चहकने लगते है
चहुँ तरफ शांती छा जाती है
हरियाली आ जाती है
शीतल बयार बहने लगती है
मेघ सावन में जेसे बरसते हैं
धूप खिल जाती है
चांदनी रातें आ जाती हैं
प्रलय थम सी जाती है
देवियाँ प्रसन्न होती हैं
देव पुष्प अर्पित करते हैं
वो भी तो कराली है
हाँ वो भी तो नारी है







नारी की दुर्दशा

शहरों को छोड़
ग्रामों में जाइए
चूल्हे चौके से ले
खेतों में निहारिये
वहाँ नारी की
दुर्दशा देख
दो चार घडे
अश्रु बहाइये
वहाँ नारी नहीं
केवल घड़ी है
नारी जहाँ पर थी
आज भी वहीँ पर खड़ी है
नारी शिक्षा का
हो रहा प्रचार
स्कूल कालिजों की
हो रही भरमार
नारी मुक्ति के
आन्दोलन हो रहे है
बड़े बड़े भाषण
जगह -जगह हो रहे है
पर नारी आज भी
निर्वस्त्र खड़ी है
नारी जहाँ पर थी
आज भी वहीँ खड़ी है
उसके अधिकारों का
संसद में हो रहा बखान
नर और नारी हैं
सब एक समान
दहेज़ रूपी दानव के
अभाव से ग्रसित
गरीब बाप की बेटी
घर में कंवारी पड़ी है
या अधेड़ से कर गठबंधन
नवयौवना अचेत पडी है
नारी जहाँ पर थी
आज भी वहीं खड़ी है

त्याग की मूर्ती कन्यायें

केवल पुत्रिया ही
अपने अभिभावकों
जन्मदाताओं को
असीम अगाध अथाह
प्रेम करती हैं
बल्कि उनके प्रत्येक वचन पर
स्वयम को अर्पण कर
उनकी आनबान को
सम्मुख रखकर
सम्पुरण जीवन तक का
बलिदान कर देती हैं
वो पुष्प की कोमल कलियाँ
कंटकों के मध्य रहकर
नागफनी घास की भांति
सूखी बंजर भूमि में
आन की खातिर
प्रेमालाप व् वार्तालाप कर
अपने यौवन तक को
आहूत कर राख कर लेती हैं
जब की अभिभावक
न्याय भी नहीं करते
सम्पुरण अधिकार
पुत्रों को अर्पण कर
उनके अधिकारों का
हनन कर लेते हैं
स्वार्थ से ग्रस्त होकर
वंश बेल बढाने हेतु
पुत्रों के लालच में
इन भोलीभाली निश्छल
अजन्मी कन्याओं की
भ्रूण ह्त्या तक करा देते हैं
आख़िर ऐसा घोर अन्याय क्योँ
क्या कन्या हेतु
यही नियति है
या ये कुल वीरांगनाएं ही
मानव जात में
एक विसंगति है

माधवी का त्याग

वो एक बाला थी

नवयौवना ,अपूर्व सुन्दरी थी

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सोमवार, 8 दिसंबर 2008

अपनों से शिकवा

मेरे अपनों ने मेरा
छुपाकर कत्ल भी तो ना किया
बीच चौराहे पर रख
बस थोडा कीमा बना दिया
लोग कीमे की कबाबें बना
मजे से खा लिया करते हैं
पर उन्होंने तो कीमे को
कच्चा ही चबा लिया
लोग कवाब खाने के बाद
तारीफ के पुल बांधते हैं
पर उन्होंने तो खाकर भी
बुरा ही बता दिया

अपनों का खून -खून नहीं

खुशियाँ लुप्त हो गयीं
दुःख के बादल छा गए
आकाश पीला हो गया
अपनों का खून-खून नहीं
अब पनीला हो गया
सज्जन दुर्जन हो गए
दुर्जन अति दुर्जन हो गए
हवाओं का रुख गर्म हो गया
चांदनी को ग्रहण लग गया
अपनों का खून -खून नहीं
अब पनीला हो गया
कलियाँ खिलती नहीं
पुष्प भी मुरझा गए
पराग बन्ना बंद हो गया
भोंरा कमजोर हो गया
अपनों का खून -खून नहीं
अब पनीला हो गया
क्रोध सशक्त हो गया
अंहकार रगों मैं बस गया
स्वार्थ सर्वोपरी हो गया
धन ही पितामह हो गया
अपनों का खून -खून नहीं
अब पनीला हो गया

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

व्यंग्य

तूने उसी तरु को काटा
जिसने दिया सहारा
फल फूल लगे थे जब तक
तब तक उसे सराहा
जब उस पर आया पतझड़
तूने कर लिया किनारा
तेरा जीवन गिद्धों जेसा
फिरेगा मारा-मारा
उस दडबे को खंडहर बनाया
जिसमें किया बसेरा
रात-दिना आँचल में सुलाकर
छाया बन पुचकारा
जब तुझे मिली संपदा
उसको तूने दुत्कारा
तेरा जीवन बंजारों जैसा
भामता फिरेगा जीवन सारा
तूने उसी नदी को कोसा
जिसने नीर पिलाया
तन तो तेरा धोया अब तक
मन ना धूवन पाया
जेसे नदियाँ सूखन लागी
तूने किया किनारा
तेरे हिय जो गंद छुपा हे
दोयेगा जीवन सारा





शेर

अपने लगे रहे हमेशा इसी फिराक में
जलता रहूँ में जैसे बाती जले चिराग में
गले से लगाया था जिन्हें आज तक
वो ही डंक मार गए
देखकर विषैले दांत उनके
हम तनिक घबरा गए
उनकी मुहब्बत की खातिर
हम बिकते चले गए
जब बोली उनहोंने ही लगा दी तो
हम जीते जी मर गए
उनकी बेपर्दगी से हम
रुसवा तो हो गए
रोना भी चाहा जब हमने
हमारे अश्क ही सूख गए
घर फोड़ वों ने घर तोड़कर
खंडहर बना दिया
ख़ुद तो ना रह सके
हमको भी घर से भगा दिया
जिस ममता को सजदा किया
उसने ही ठोकर मार दी
हम ठोकरें खा-खा कर भी
सजदे करते चले गए

कुल्वर्धन हेतु क्या ना किया

अपने कुल को
उच्च स्थान दिलाने हेतु
मेने क्या क्या ना किया
नीम की पकी निबोलियाँ भूला
पीपल की छांव छोड़ी
मिट्टी की सुगंध छोड़ी
तालाब का निहारन छोड़
खेतों की हरियाली भूल
अपनी जनम भूमि छोड़
दिल्ली को पलायन किया
दुर्गन्धयुक्त वातावरण में
श्वासों को झोंक दिया
पत्थरों को तोडा
सड़कों को जोड़ा
दास्ताये स्वीकार की
स्वाभिमानी हृदय को तोडा
असंख्य दिलों को जोड़ा
अनगिनत दिलों को तोडा
प्रेम की आहुती दी
पर धर्म को ना छोडा
फ़िर भी निगोड़े कुल्ध्वन्स्कों ने
मेरी आत्मा को मारा
अपनत्व के अभिमान को तोडा
ह्रदय में छिद्र हो गए
श्याम मेघों जैसे केश
बर्फ की भांति शवेत हो गए
नेनों में दीदें आ गयीं
नीचे कालिमा छा गईं
बोल सूख गए
गालों पर झुर्रियां आ गईं
दंत पंक्ति चरमरा गईं
हड्डियों गल गईं
चर्म बाकी रह गयीं
आत्मा जीवित रही
पर हम मर गएँ
शायद इश्वर ने ये भी
मेरे साथ न्याय किया

हमारे अपनों के ख्वाब

हर शख्स परेशान है
अपने ही घर में
अपने ही घूर रहे है
गिद्धों सी नजर में ,
जिन्हें मोहब्बत करते दुश्मन
महफूज है जहाँ में
उन्हें कत्ल करते अपने
ले जाके बिया बा में ,
सब छीनकर माले असबाब
रात दिन देखते है खवाब
केसे दे कटोरा हाथ में
ताकि भीख मांगे नवाब ,
कर लेते है हसरतें पूरी
पाते है सेल्फ मेड का खिताब
खुल जाने पर असलियत
पीना पड़ता है गर्म तेजाब

मेरे अपने के कटाक्ष

जब निजी तन में
अपनों के व्यंग वाणं लगे
आहत हुआ मन किंचित सा
और जीवन का संहार हुआ
कोई प्रशन करे आकर मुझसे
क्यों ?
मेरो ने मेरा संहार किया
क्या उत्तर दूँ कैसे तुष्ट करूँ
जो मेरे संग ऐसा व्यव्हार हुआ ।
ना आंच कभी आने दी उनपर
जिन्होंने मेरा तिरिस्कार किया
आशीर्वादों की माला अर्पण कर
स्वयेम हस्तों से श्रृंगार किया
पीड़ा इस बात की हे मुझको
ऐसा भी क्या मेने पाप किया
शायद अपराधी हूँ उनसब का
जिन्होंने कटाक्ष प्रहार किया ।

मेरे अपनों ने

जितने भी पुष्प मैने
उनके पगों तले बिछाये
एक पुष्प के बदले
हजारो हजारो शूल उन्होंने
मेरे तलवो में चुभाये
यद्दपि मैने मोह वश
चीत्कार तो न किया
पैर रुद्र मेरे नैनो से बह
कपोलो पर लुड़क कर
मेरे कंठ को शुद्ध कर
मेरे हृदये में जा समाये ।
जितने भी प्राकृतिक एवम
कृत्रिम बसंतो से
उन्हें आतम विभोर कराये
उनसे सहस्रों गुन्हे पतझड़
अंधड़ व तूफ़ान
वे मेरे जीवन में चुन चुन कर लाये
यधपि में टूट ना पाया
बल्कि संघर्ष किया
इस लिए भूकंप भी मेरा
बाल बांका तक न कर पाये ।
जितने भी स्वर्णिम दिन व
चांदनी राते मेरे पास थी
उनमे भी मैने उनको
लोरियां गा गा कर सुलाए
मीठी मीठी नींद में
आनंदमय होते हुए भी
नस्तर मेरे हृदये में चुभाये
फ़िर भी में घायल न हुआ
न ही रक्त नाले बह पाये
पर मेरे प्रेम को ठेस दे
अवनती के परचम फेलाए ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

तन भी अपनों का

मेरे अपनों ने
मेरे बंधू बांधव व
जिगर के टुकडों ने
मेरा ही रक्त पीकर
मेरा मांस व
जिगर को नोच-नोच कर
खाने के बाद भी कहा
अभी तक तुमने हमको
दिया ही क्या है ,
जो अश्थी पंजर
तुम्हारे पास हैं
जिनमें बहुत कुछ
तुमने छिपा रखा है
वो भी तो हमारा है ,
उस पर हमारा
हमारे कुल का
नाम लिखा है ,
यदि तुम दधिची हो
निस्वार्थी हो
परोपकारी हो तो
इस अस्थी पंजर तन को भी
हमारे हवाले कर
अपना नाम किसी रामायण या
महाभारत में लिखाकर
देदीप्यमान कर
देवगति प्राप्त कर लो

आज की पीढी क्या कर रही है



गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

अपनों के कारण जो स्वयम पर बीती

में दर्दे दिल लिए
दर्द भरी राहों पर
अकेला ही चलता रहा
दर्द देने वाले
दर्दे दवा के बिना
दर्द भरी दास्ताँ लिये
रिश्ते बनाते चले गए
में दर्द सहता रहा
दर्द ही फोडा बन गया
पर रिश्ते निभाता रहा
जब फोडे से मवाद रिसने लगा
बदबू कुछ आने लगी
सारे रिश्ते दम तोड़ गए
अब में अकेला ही
दर्द भारी जिन्दगी जी रहा
और फोडा केंसर बन गया
दर्द भी बढता गया
पर अब वो दर्द ही मेरे लिए
दर्दे दवा है बन गया

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

मेरी अन्तिम इच्छा

मेरी प्रार्थना
उन सत्पुरुषों से
जो मेरे दिवंगत होने पर
मृत शव को देखने
कफ़न डालने अथवा
श्रधान्जली अर्पित करने आयेंगे ,
सवयम दर्शन करें
अन्यों को दर्शन कराएँगे
पर मेरे कुटुम्बियों हेतु
मेरे दिव्य मुख से
कफ़न का पट
कभी ना हटायेंगे ,
बल्कि उन धन -लौलुप
स्वार्थी कपटी क्रूर
भाई बंधू -माता -बहिन
सभी को मेरे शव से
दूर-दूर हटायेंगे ,
मेरे पार्थिव तन को
कुटुम्बियों ने स्पर्श कर दिया तो
मेरी शुद्ध आत्मा को
मलिन कर
स्वर्गवासी होने के बदले
नरकगामी बना जायेंगे ,
इस लिए मेरी अर्थी को
अपने कन्धों पर रख
मेरी पत्नी और बच्चों से
स्पर्श करा ,
उन्हें सांत्वना दे
शमशान घाट ले जाएंगे
मेरी पुत्रियों से
सभी क्रियाकर्म करा
मंत्रोचार के पश्चात्
अग्निदेव को समर्पित कर
राम का अंश
राम में मिला कहते
पंच्तात्वा विलीन कर
अपने -अपने घर
प्रस्थान कर जाएंगे ,



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सोमवार, 1 दिसंबर 2008

प्रभु कृपा

मुझे प्रभु ने निर्मित कर
स्वयं स्वरुप का भवन दिया है
ईंट पत्थर सीमेंट नहीं लगाया
हाड मांस चर्म से सर्जन किया है ,
मुझे शक्तिशाली बनाने हेतु
आत्मबल साक्षात् किया है
निस्वार्थ सेवा करने हेतु
आत्मा और वाणी का स्थापन किया है ,
विचार कुविचारों का विश्लेषण हेतु
विवेक का भंडार दिया है
असत्य पर सत्य की विजय हेतु
चिंतन से ओतप्रोत किया है ,
नेसर्गिक आनंद प्राप्ति हेतु
इन्द्रीओं का भरपूर भंडार दिया है
आत्मिक शांती प्राप्त करने हेतु
प्रेम भक्ति भय का आविष्कार किया है

निमग्नता

मैं जब शुन्य मैं होता हूँ
परिस्थितियों से अनभिज्ञ
निहारता हूँ क्षितिज
पर कौणों को देख नहीं सकता ,
सूर्य की रौशनी में
तारों को खोजता हूँ
चंद्र को पाने का प्रयत्न करता हूँ
पर वो भी नहीं मिलता ,
प्रतीत होता हे सब मुझसे
रूस्ठ हो गए हें
रात्रि के गहन तिमिर मैं
दिन के प्रकाश को भूल गए हैं ,
कालिमा से ओतप्रोत रैन में
शशि और सितारौं से निवेदन हे
दे दो रौशनी मुझ दरिद्र को
नहीं तो कूच करता हूँ ,
नम्र निवेदन को सुनकर भी
अनसुना कर देते हें
वो भी अपने तेज से केवल
सवॐ को प्रकाशित करते हें ,
शायद मैं अभागा हूँ
जो मृत्यु भी नहीं आती
निहारता हूँ शुन्य को
वो भी नजर नहीं आती ।