सोमवार, 1 दिसंबर 2008

निमग्नता

मैं जब शुन्य मैं होता हूँ
परिस्थितियों से अनभिज्ञ
निहारता हूँ क्षितिज
पर कौणों को देख नहीं सकता ,
सूर्य की रौशनी में
तारों को खोजता हूँ
चंद्र को पाने का प्रयत्न करता हूँ
पर वो भी नहीं मिलता ,
प्रतीत होता हे सब मुझसे
रूस्ठ हो गए हें
रात्रि के गहन तिमिर मैं
दिन के प्रकाश को भूल गए हैं ,
कालिमा से ओतप्रोत रैन में
शशि और सितारौं से निवेदन हे
दे दो रौशनी मुझ दरिद्र को
नहीं तो कूच करता हूँ ,
नम्र निवेदन को सुनकर भी
अनसुना कर देते हें
वो भी अपने तेज से केवल
सवॐ को प्रकाशित करते हें ,
शायद मैं अभागा हूँ
जो मृत्यु भी नहीं आती
निहारता हूँ शुन्य को
वो भी नजर नहीं आती ।

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