हिम खंडों से उत्त्पन्न
हिमालय पुत्री
बड़े -बड़े पाषाणों को
धकियाती
छोटे -छोटे पत्थरों को
सुंदर स्वरुप प्रदान करती
दुर्गम पथों
घाटियों
चट्टानों
अरण्य वनों से
प्रेमालाप अलापती
पशु पक्षी और
निरीह जानवरों को
अपने स्वादिष्ट
मीठे शीतल
सुपाच्य जल का
सेवन कराती
धरा पर अवतरित हो
छोटी -छोटी नदियों
नालों झरनों को
अपने आँचल में
समेटती
निरंतर
दिन रैन
प्रगति के पथ पर
सर्प की भांति लहराती
मैदानी क्षेत्रों को
जल का अमृत पान कराती
हरियाली लुटाती
अपने वेग व
वक्रता से उत्पन्न
कल कल के शब्द से
जनसमूह के
ह्रदय को लुभाती
जीवन प्रदान करती
यथार्थता को
उजागर करती जाती
असंख्य संकटों को
उदर में समाती
अपने प्रियतम
समुन्द्र का
सामीप्य पाते ही
उसकी सशक्त भुजाओं में
आलिंगन बद्ध हो
मोक्ष प्राप्ति कर जाती
शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें