अपने कुल को
उच्च स्थान दिलाने हेतु
मेने क्या क्या ना किया
नीम की पकी निबोलियाँ भूला
पीपल की छांव छोड़ी
मिट्टी की सुगंध छोड़ी
तालाब का निहारन छोड़
खेतों की हरियाली भूल
अपनी जनम भूमि छोड़
दिल्ली को पलायन किया
दुर्गन्धयुक्त वातावरण में
श्वासों को झोंक दिया
पत्थरों को तोडा
सड़कों को जोड़ा
दास्ताये स्वीकार की
स्वाभिमानी हृदय को तोडा
असंख्य दिलों को जोड़ा
अनगिनत दिलों को तोडा
प्रेम की आहुती दी
पर धर्म को ना छोडा
फ़िर भी निगोड़े कुल्ध्वन्स्कों ने
मेरी आत्मा को मारा
अपनत्व के अभिमान को तोडा
ह्रदय में छिद्र हो गए
श्याम मेघों जैसे केश
बर्फ की भांति शवेत हो गए
नेनों में दीदें आ गयीं
नीचे कालिमा छा गईं
बोल सूख गए
गालों पर झुर्रियां आ गईं
दंत पंक्ति चरमरा गईं
हड्डियों गल गईं
चर्म बाकी रह गयीं
आत्मा जीवित रही
पर हम मर गएँ
शायद इश्वर ने ये भी
मेरे साथ न्याय किया
शनिवार, 6 दिसंबर 2008
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