शनिवार, 6 दिसंबर 2008

शेर

अपने लगे रहे हमेशा इसी फिराक में
जलता रहूँ में जैसे बाती जले चिराग में
गले से लगाया था जिन्हें आज तक
वो ही डंक मार गए
देखकर विषैले दांत उनके
हम तनिक घबरा गए
उनकी मुहब्बत की खातिर
हम बिकते चले गए
जब बोली उनहोंने ही लगा दी तो
हम जीते जी मर गए
उनकी बेपर्दगी से हम
रुसवा तो हो गए
रोना भी चाहा जब हमने
हमारे अश्क ही सूख गए
घर फोड़ वों ने घर तोड़कर
खंडहर बना दिया
ख़ुद तो ना रह सके
हमको भी घर से भगा दिया
जिस ममता को सजदा किया
उसने ही ठोकर मार दी
हम ठोकरें खा-खा कर भी
सजदे करते चले गए

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