साँझ हो रही है
पर सूर्य का
अन्तिम समय
जैसे -जैसे समीप आ रहा है
उसका वही तेजोमय सवरूप
जी प्रात:काल
उसके पैदा होने के समय था
वापस आ रहा है
यह विचित्र संयोग है
की एक तपस्वी
तप में लीन
जैसा उत्पत्ति के
क्षणों में था
यथास्थिति
अन्तिम समय में भी
मंद -मंद मंथर गति से
विचरण करता
मुस्कुरा रहा है
ना उसे
आने की प्रसन्नता थी
और ना जाने का संताप
सम्पूर्ण दिन
अपने खजाने से
इस नश्वर संसार को
ओत प्रोत कर
स्वयम का सम्पूर्ण वैभव
यहीं पर अर्पण कर
परोपकार करता
खाली हाथ आया
और खाली हाथ जा रहा है
कोई नहीं जानता
उसकी भावनाए क्या थी
और उद्देश्य क्या था
हाँ इतना अवश्य है की
वो परोपकार में ही
स्वार्थ खोजता -खोजता
अपने गंतव्य को
मंथर गति से
मंद -मंद मुस्कुराता
चला जा रहा है
शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008
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