गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

माँ ,मात्रभूमि और मात्राभाषा

प्रत्येक मानव
प्रेम करता है
माँ से
मात्रभूमि से
मात्रभाषा से
क्यों की ये तीनों
निस्वार्थ है
परोपकारी व्
उदारता
कूट-कूट कर भरी है
इनके आँचल में ,
सभी देव व
देवियों की आस्थाये
निवास करती हैं
उनके चरण कमलों में
माँ ममत्व देती है
वात्सल्य उन्देलती है
दुग्धपान करा
नवजीवन देती है
मानमर्यादा व
सुसंस्कृत करती है
संस्कार देती है
गुरु बनकर
विवेक देती है
अपना सर्वस्व न्यौछावर कर
मानव कोमानवीयता का
आशीर्वाद देती है
लौह पुरूष बनाकर
लोहे के चने
चाबने का
आह्वान करती है
मात्रभूमि
जो मानव को
अपनी रज से
पुश्टी व तुष्टी
प्रदान करती है ,
अपनी मृतिका की
भीनी -भीनी सुगंध से
सम्मोहित कर
बाँध लेती है ,
वो सुजलां है
सफला है
अपने अन्न व जल
एवं वायु से
भरण पोषण कर
जीवन में
संघर्षरत हो
मर्यादित जनों की भाँती
जीवनयापन का
व्याख्यान देती है
मात्र भाषा ,
जो शब्दों का जाल है
बिन पढ़े ही
पुस्तेकों के
मानव को
बोलने चालने व
विचार करने का
आभाष करा देती है
अध्ययन करने पर तो
मानव के अंदर
छिपी प्रतिभा को
प्रेरित कर
सम्पूर्ण ज्ञान का
भण्डार भर देती है