बुधवार, 10 दिसंबर 2008

नारी समर्पण

क्यों प्रथाओं से भी
असीम प्रेम करती हो
क्रोध को भी
प्रेम से सींचकर
उसमे पराग भरती हो ,
कुप्रथाओं को भी
ह्रदय में सँजोकर
जीवन संचार करती हो
ओढ़ लबादा बिना मान के
क्यों श्रृंगार करती हो ,
संस्कारों की गुंथकर माला
सबका उद्धार करती हो
ओरों के ह्रदय का
क्षोभ मिटाकर
उसमे मिठास भरती हो ,
आदर्शों को अग्नि देकर
नित प्रहार सहती हो
एक कुल से
दूसरे कुल में जाकर
कुल्वार्धिनी बनती हो ।

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