सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

मेरी कविता

आगंतुक को
फाटक पर देखा
झट से गुहार लगाई
मुंह ना खोल सका बेचारा
मैंने एक कविता उसे सुनाई
और फ़िर पूछा
कहाँ से आए
कहाँ है जाना
कौन गाँव है
कौन ठिकाना
यहाँ पर ना कोई तेरा
ना कोई मेरा
जीवन तो है रैन बसेरा
जैसे ही बोलने हेतु
उसने ली हिच्काई
मौका पाकर
मैंने एक दम
एक कविता और सुनाई
मेरा मूड देख बेचारा
होने लगा वो
नो दो ग्यारह
जैसे ही कुछ दूर गया
मैंने आवाज लगाई
दो से यहाँ कुछ ना होता
तीन तो करता जाता भाई
पीछे मुड़कर
देखा ना उसने
सड़क पर दौड़ लगाई
ठोकर खाकर गिरा
सड़क पर
सिर के बल
पलती खाई
होश आया तो मुझे देखकर
उलटी उसको आई

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