रविवार, 30 नवंबर 2008

मेरे हाथ

ये हाथ ही तो है
जिनके माध्यम से
उनपर उकरित रेखाएं
और युग्मों के
विश्लेषण विवेचन मात्र से
बताया जा सकता हे
किसी का भी
भूत -भविष्य -वर्तमान काल
इन्ही के द्वारा
बनते हें इतिहास
लिखे जाते हें लेख
कवितायें रिर्चायें
भाषा और उसका भाष्य
महाभारत - रामायण
वेद और पुराण
सभी का इनके द्वारा
हुआ है निर्माण
संसार के कल्याण हेतु
करते हें हवन
यज्ञ और तर्पण
पहिनाकर पुष्प मालाएं
देवी देवताओ को
करते पुष्प दूध दही
मिष्ठान आदि अर्पण
माता पिता की सुशुरवा करके
बन जाता हैं मानव श्रवण
मानव मात्र की
सेवा करके
कट जाता हे इनका यौवन
फिर भी कोई नहीं पूजता
करवाते पूजा घरों मैं
सब इन्हीं से पूजन
कर्वद्य प्रार्थना करते सभी को
और करते सभी का
अभिनन्दन ।

आस्था

हिंदू पूजते मन्दिर केवल
सिख पूजते गुरूद्वारे
मुस्लिम जाते मस्जिद केवल
पैर में पूजू सब द्वारे
राम भी मेरे ईसा भी मेरे
नानक और मक्का मदीना मेरे
इन सभी के आशिरवादों से
जीवन के क्षण बीते सारे
सभी ग्रन्थ देते उपदेश
सत्ये अहिंसा प्रेम ईमान
गुरु ग्रन्थ हो या बाइबल
चाहे गीता हो या कुरान
पूजा स्थलों का महत्व जानो
ग्रंथों के उपदेशों को मानो
नही मिटायो कोई निशान
एक दूजे का रखो धयान
मानव की कोई जात नही हे
सभी की जात हे इंसान
हिंसा के मत बनो पुजारी
नही बनो खूनी दरिन्दे हेवान
चलो मिलकर बजाये घंटियाँ
और मिलकर लगाये अजान
गुरुवाणी गाये गुरुदेव की
मधुर मिलन से बन जाए इंसान...

कलयुगी वातावरण

मेरी सहिष्णुता
मेरा वात्सल्य
मेरे सिद्धांत ही
सत्ये पथ में रोढे बनकर
गला घोटने को
स्व्येम के हस्तों से
प्रेरित कर रहे हे,
अपनो के प्रति आकुलता
सर्वस्व के हेतु व्याकुलता
सर्व धर्मों के प्रती
समभाव श्रधा
कलयुगी वातावरण में
स्व्येम मुझको ही
लज्जित कर रहे हे,
मेरी दान शीलता
क्षमा याचना स्वीकारोक्ति
निस्वार्थ प्रकर्ती प्रेम
असत्य से विमुखता
सभी मेरा दामन फाड़
मृत्यु आलिंगन हेतु
प्रयास कर रहे हैं
मेरा त्याग तपस्या
मेरा वैचारिक शक्ति
मेरी आतम शुद्धि संवेदन शीलता
मेरा निश्छल प्रेम
मेरे उद्देश्य, वचन
शायद कलयुगी वातावरण में
मुझे ही दूषित कर रहे हैं...

मेरे अश्रु

मेरे द्रवित अश्रु
कपोलो पैर गिरे
तो कपोल गल गए
वस्त्रों पर गिर पड़े
तो वस्त्र जल गए
पत्थरों पर गिर पड़े
तो पत्थर पिघल गए
धरा पर गिरे तो
उसमे गड्ढे बन गए
प्रवाहित नदी में गिरे तो
जल खारा कर गए
अंगारों पर गिरे तो
शोला बन गए
घाव पर गिरने पर
फफोले बन गए
अतृप्त पर गिरने पर
उसे तृप्त कर गए
जिसके नैनों में बसे
तो नदी बन बह गए
शव पर गिर पड़े तो
जीवन दान दे गए
पर जिनके हेतु बहे
उन्होंने लगाये कह कहे...

ममता का बदला

मैं अपनी चर्म से
जूतियाँ बना कर भी
तुझे पहना दूँ
या अपनी हड्डियों का
अंजन भी बना
तेरी ममता मयी
नैनों में लगा दूँ
या अपने रक्त की
एक एक बूंद से
तुझे सर्वांग सनान करा दूँ
या अपनी गर्दन काटकर
तेरे चरणों में
भेंट चढा दूँ
तब भी में समझूंगा
की नही उतार पाया
तेरे दूध का बदला
क्यूंकि वो दूध नही
बल्कि अमृत हे
और वेह केवल

समुंदर मंथन से ही
मिलना सम्भव हे
और समुंदर मंथन

मेरे हेतु मील का पत्थर हे
इस ही लिए सम्पूर्ण जगत
ममता का बदला
उतारने के नाम पैर
नीरउत्तर हे ...

शनिवार, 29 नवंबर 2008

मैं पागल ही तो हूँ

में कभी कभी
उड़ती उड़ती बातें सुनता हूँ
लोग मुझे पागल कहते हैं
हाँ हाँ मैं पागल ही तो हूँ
क्यूंकि वाही लोग मुझे पागल कहते हे
जो मेरी वास्तविकता से परिचित हैं
उन्होंने मुझे देखा हे परखा हे
और तभी ये निष्कर्ष निकला होगा
की मैं पागल हूँ
वरना वो ऐसा क्यों कहते
पागल तो में हूँ ही ना
वे सही कहते हे
मैं पागल ही हूँ क्यूंकि
मैं कर्म ही ऐसे करता हूँ
कलयुग में सतयुगी बातें करता हूँ
कलयुग में वे छीन ते हैं झपट ते हैं
और मैं सर्वस्व देने की बात करता हूँ
आख़िर हूँ न में पागल...
मैं जिस से प्रेम करता हूँ
तो साचा प्रेम करता हूँ
और विरोध करता हूँ
तो भी सच्चा विरोध करता हूँ
पर वे तो प्रेम व विरोध
दोनों ही झूटा करते हैं
जिस थाली में खाते हैं
उस ही मैं छेद करते हैं
मुख में तो राम राम
बगल में चुरी का प्रयोग करते हैं
जरा सोचो
मैं पागल नही तो और क्या हूँ ...
लोग अन्याय करते हे
और अन्याय सेहन भी करते हैं
पैर मैं ऐसा नही करते
बल्कि नयाये हेतु लड़ता हूँ
अन्याय सेहन नही करता
और न ही अन्याय करता हूँ
मुझे केवल न्याय चाहिए
अब जरा सोचिये
कलयुग में न्याय कहाँ
न्यायालय छोटे पड़ गए हैं
दंडाधिकारी ही
दंड के अधिकारी बन गए हैं
जरा सोचो और बतायो
मैं पागल नही तो क्या हूँ...
लोग भ्रष्टाचारी बनते हैं
भ्रष्टाचार भली भाँती करते हैं
लाखों करोडो कमा कमा कर
अपनी खाली तिजोरियां भरते हैं
पैर मैं नही करता
बल्कि भ्रष्टाचार से लड़ता हूँ
तो सरकारी हुक्मरान कहते हैं
आचार तो तुम हमारे साथ
भ्रष्ट कर रहे हो
वो कहते हे हमें भी दो
और ख़ुद भी खायो
इस ही को संसारिकता कहते हैं
और समय के साथ चलना कहते हे
पैर मैं नही समझ पाटा
उनकी कलयुगी सलाह
जरा सोचो
मैं पागल नही तो क्या हूँ...
लोग कहते हैं क्रिशन ने कहा था
कलयुग में सब उल्टा होगा
तो तुम ही क्यूँ
सुलटा करने में लगे हो
क्या तुम द्वापर के
भगवन क्रिशन से भी बड़े हो
जो क्रिशन ने कहा
वो ही तो सत्य होगा
पर तुम्हारे जैसे पागलों की कौन सुनेगा
पर मैं उन जैसा बन नही सकता
जरा सोचो मैं पागल ही तो हूँ...

में तो क्या चीज़ हूँ

वे पुष्प
जिन्होंने सदैव
शूलों को
वात्सल्य दिया
हृदये से लगाया,
और स्व्येम का
वृक्ष से
बिछोह होने पर
किसी को सुगंध
किसी को गजरा
किसी को सौन्दर्यता
किसी को गले का हार बन
मान बढाया या
प्रभु के चरणों में पड़
भक्त का भगवन से
परिचय करवाया
उसको भी
मुरझा जाने पर
गले से
जूडे से
चरणों से
उतार कर फेंक देते हे
फ़िर में तो क्या चीज़ हूँ...
वे माँ बाप
जिन्होंने इस संसार में
प्रतेक मानव को
इस पृथ्वी रूपी स्वर्ग पर
पदार्पण कराया
ममता दी
वात्सल्य दिया
लोरिया गा गा कर
रातों को सुलाया
स्वेयम गीले में सोये
बच्चो को सूखे में सुलाया
परिश्रम कर कर के
पढाया लिखाया
स्तनों से चिपटाकर
दुग्ध पान करवाया
कितने ही संस्कार दे
योग्य बनाया
एवम ब्याह तक रचाया
उनकी ही संतानों ने
उनकी शक्ति कम होने पर
बुडे हो जाने पर
कचरा समझ कर
फेंक देते हैं
आत्महत्या करने को
मजबूर कर देते हैं
फ़िर में तो क्या चीज़ हूँ...
वही बापू
वही बोस
चंद्रशेखर आजाद
जिन्होंने भारत माता को
सभी भारत वासियों को
जाती पांती का भेद न कर
गोरो की गुलामी से
आजाद कराया
स्वेयम बेडियाँ पहनी
जेल में यातनाए भोगी
गले में फांसी लगाई
कचरे की टोकरियाँ उठाई
गालियाँ खायी
अपना सर्वस्व देकर
जीना सिखाया
भारत का नाम
ऊँचा कराया
आज स्वर्गवासी होने पर
कई दशक बीत जाने पर
वाही भारत वासी
जिनको कभी गले लगाया
आज उनको गालिया देकर
देश द्रोही
हरिजन द्रोही
न जाने क्या क्या बता रहे हे
आए दिन उनपर
कीचड उछाल रहे हे
फ़िर में तो क्या चीज़ हूँ...

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

अजेय

में सेंतीस वर्षो से
युद्ध रत हो
किसी न किसी से
युद्ध करता आ रहा हूँ
और सदेव
एक योधा की भांति
सिर पर कफ़न या
केसरिया पगड़ी बाँध
जीते योधा की भांति
जीवन जीता आ रहा हूँ
मुझे कोई हरा न सका
क्यूंकि में अजेय हूँ...

कितनी ही चम्गाद्रों को
पुराने खंडहरों से निकाल
उनकी त्रष्णा व क्षुधा को
स्वयेम के ही मॉस से
संतुष्ट और शांत कर
जीवन देता आ रहा हूँ
पर वे स्वाभाव वश
मुझे नोच नोच कर
भक्षण करते हुए भी
हराने का प्रयास कर रहे हे
पर वे मुझे हरा न सके
क्यूंकि में अजेय हूँ...

अर्धांग्नी की पीड़ा

अर्धांग्नी की पीड़ा

में संघर्ष करते करते,
निढाल हो गया हूँ,
शूल युक्त मार्ग पैर चलते चलते,
विकराल हो गया हूँ...

अर्धांग्नी का हाल देखकर,
में बेहाल हो गया हूँ,
उसके पगों में चुभे शूल देखकर,
रोष से लाल हो गया हूँ...

उसकी मुख मुद्रा देखकर,
थोड़ा वाचाल हो गया हूँ,
रुद्रों के झरने बहाते बहाते,
में स्व्येम पाताल हो गया हूँ...

कुछ भी करने को उत्सुक हूँ,
पैर कुछ कर नही सकता,
सब कुछ कर सकता हूँ,
मगर किस्मत बदल नही सकता...

कभी सीता कभी उर्मिला बन,
मेरे संग संघर्ष करती रही,
हर दुःख में साथ दिया मेरा,
पग से पग मिला चलती रही...

में सुख न दे सका उसे,
वो सदेव साहसी बनी रही,
मूक रह कर भी रात दिन,
अपनी कहानी मुझ से कहती रही.....

में अकेला ही हूँ

वर्तमान में मंथर गति से,
बहती निश्छल समीर भी,
मुझे टीस पहुंचाती हे,
जो कभी मेरे अंतह में व्याप्त,
सांत्वना दिया करती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

उन पुष्पों की सुगंध भी,
दुर्गन्ध का आभास देती हे,
जो कभी मेरे मस्तिष्क में बस,
वशीभूत किया करती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

झरनों का कल कल करता प्रलाप भी,
असेह्निये संताप देता हे,
जो कभी अपनी मधुर कल कल से,
मन मयूर बन नृत्ये कराता था,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

आज पक्षियों का कलरव भी,
शोर का भान कराता हे,
जो मेरे सर्वांगो में,
संगीत का उध्घोउश करता था,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

आज संगीत के वाद्ये यन्त्र भी,
कुरे के ढेर प्रतीत होते हे,
जो कभी ईश स्तुति में,
मुझे राम म्ये किया करते थे,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

मुझे यौवन की अठखेलिया,
भूल सी प्रतीत होती हे,
जो कभी मेरे जीवन को,
सावन की मल्हार बनाती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

मुझे अर्धांग्नी की चंचलता,
विह्वलता प्रतीत होती हे,
जो कभी मेरे पवन हृदये को,
इस्पंदन सा दिया करती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

मुझे बालगोपालो की किलोलें,
यक्ष प्रशन नज़र आती हे,
जो कभी मेरे कोमल मन में,
खुशिया भर दिया करती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

मुझे अतीत के सुन्हेरे क्षण,
अंधकार म्ये नज़र आते हे,
जो कभी मुझे जीने की,
प्रेरणा दिया करते थे,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....