शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

में अकेला ही हूँ

वर्तमान में मंथर गति से,
बहती निश्छल समीर भी,
मुझे टीस पहुंचाती हे,
जो कभी मेरे अंतह में व्याप्त,
सांत्वना दिया करती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

उन पुष्पों की सुगंध भी,
दुर्गन्ध का आभास देती हे,
जो कभी मेरे मस्तिष्क में बस,
वशीभूत किया करती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

झरनों का कल कल करता प्रलाप भी,
असेह्निये संताप देता हे,
जो कभी अपनी मधुर कल कल से,
मन मयूर बन नृत्ये कराता था,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

आज पक्षियों का कलरव भी,
शोर का भान कराता हे,
जो मेरे सर्वांगो में,
संगीत का उध्घोउश करता था,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

आज संगीत के वाद्ये यन्त्र भी,
कुरे के ढेर प्रतीत होते हे,
जो कभी ईश स्तुति में,
मुझे राम म्ये किया करते थे,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

मुझे यौवन की अठखेलिया,
भूल सी प्रतीत होती हे,
जो कभी मेरे जीवन को,
सावन की मल्हार बनाती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

मुझे अर्धांग्नी की चंचलता,
विह्वलता प्रतीत होती हे,
जो कभी मेरे पवन हृदये को,
इस्पंदन सा दिया करती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

मुझे बालगोपालो की किलोलें,
यक्ष प्रशन नज़र आती हे,
जो कभी मेरे कोमल मन में,
खुशिया भर दिया करती थी,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

मुझे अतीत के सुन्हेरे क्षण,
अंधकार म्ये नज़र आते हे,
जो कभी मुझे जीने की,
प्रेरणा दिया करते थे,
क्यूंकि में अकेला रह गया हूँ....

कोई टिप्पणी नहीं: