अर्धांग्नी की पीड़ा
में संघर्ष करते करते,
निढाल हो गया हूँ,
शूल युक्त मार्ग पैर चलते चलते,
विकराल हो गया हूँ...
अर्धांग्नी का हाल देखकर,
में बेहाल हो गया हूँ,
उसके पगों में चुभे शूल देखकर,
रोष से लाल हो गया हूँ...
उसकी मुख मुद्रा देखकर,
थोड़ा वाचाल हो गया हूँ,
रुद्रों के झरने बहाते बहाते,
में स्व्येम पाताल हो गया हूँ...
कुछ भी करने को उत्सुक हूँ,
पैर कुछ कर नही सकता,
सब कुछ कर सकता हूँ,
मगर किस्मत बदल नही सकता...
कभी सीता कभी उर्मिला बन,
मेरे संग संघर्ष करती रही,
हर दुःख में साथ दिया मेरा,
पग से पग मिला चलती रही...
में सुख न दे सका उसे,
वो सदेव साहसी बनी रही,
मूक रह कर भी रात दिन,
अपनी कहानी मुझ से कहती रही.....
शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
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